उत्तराखण्ड माँगे भू-कानून
तब पंजाब नहीं था, पेप्सु कहते थे। इसमें पश्चिम में जम्मू का पहाड़ी क्षेत्र और पूर्व में आज का हिमाचल, ये इलाके भी शामिल थे। पश्चिमी जम्मू की अपेक्षाकृत पूर्वी भाग की पहाड़ियां शिवालिक हिमालय का हिस्सा होने के कारण सुगम थी, आज भी हैं, इसलिए अंग्रेजों ने यहाँ अपने लिए कई शानदार इलाके बनवाए, शिमला को तो भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी तक रखा गया, क्योंकि अंग्रेज दिल्ली की गर्मी को बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। एक तो पहाड़ी इलाका ऊपर से पंजाब रियासत का हिस्सा और अंग्रेजों का गुलाम देश, इस क्षेत्र (आज का हिमाचल) का कभी विकास नहीं हो पाया, 47 में अंग्रेज गए तो रियासतें भारत में मिली और पेप्सु से पूर्वी पहाड़ी हिस्से को अलग कर एक अलग प्रदेश बना दिया गया हिमाचल। अपने शानदार वातावरण और शिवालिक हिमालय का मुख्य भाग होने के चलते यहाँ अत्यंत सुखद संभावनाएं थी, केवल पर्यटन की नहीं, बागवानी की भी, इससे पहले अंग्रेज एक दो जगहों पर बागान लगा कर गए थे मगर विस्तार नहीं था, और वैसे भी केवल संभावनाओं से कुछ नहीं होता। संभावनाओं को हक़ीक़त में बदलने के लिए चाहिए होती है दूरदृष्टि और पुरुषार्थ, इन दोनों ही गुणों के धनी व्यक्ति ने नए-नवेले प्रान्त की कमान संभाली, नाम था यशवंत सिंह परमार, इन्हीं के नाम से हिमाचल में राज्य कृषि विश्वविद्यालय भी है। परमार जी ने हिमाचल को वो दिया जिसकी वहाँ के निवासियों को सबसे ज्यादा जरूरत थी, “हिमाचल का भू कानून” जिसके द्वारा हिमाचल में किसी भी बाहरी व्यक्ति को जमीन खरीदने या जमीन पर किसी भी तरह के दावे से पूरी तरह वंचित कर दिया गया, परिणाम सामने आया और हिमाचल बागवानी के बड़े उत्पादक राज्य के रूप में देश के फलक पर छा गया। आज देश में बिकने वाले सेब का लगभग 80% हिमाचल में पैदा किया जाता है, शानदार सड़कें, बेहतरीन पर्यटन स्थल और धर्मशाला का क्रिकेट स्टेडियम क्या नहीं है हिमाचल में। एक व्यक्ति कैसे किसी प्रदेश कि किस्मत में चार चाँद लगा सकता है डॉ यशवंत सिंह परमार ने करके दिखाया।

कट टू 1990, हिमाचल अपने बनाये कानूनों और सरकारों की दूरगामी योजनाओं के दम पर जहाँ विकास की नई इबारतें लिख रहा था, वहीं उसके पड़ोस का पहाड़ी क्षेत्र अभी तक भी राज्य या केंद्र की एक -आध निगाह का भी मोहताज़ बना रहा। विकास की दौड़ में खुद को पीछे छूटता देख आखिरकार इस क्षेत्र के लोगों ने अपनी आँखें खोली और “आज चाहिए, अभी चाहिए उत्तराखंड” नारे के साथ आंदोलन का सूत्रपात हुआ। इस आंदोलन का उद्देश्य ही था कि पहाड़ी राज्य का गठन हो जो हिमाचल कि तर्ज़ पर इस क्षेत्र के लोगों के जीवन स्तर को उठाने में मददगार साबित हो। जाने कितनी कुर्बानियों के बाद राज्य तो मिल गया लेकिन बस नाम का ही राज्य होकर रह गया, अस्थायी राजधानी के नाम पर देहरादून में जो विधानसभा भवन बना वो स्थाई ही हो गया, न पहाड़ की सुध लेने वाला कोई पहाड़ में रहा न ही आंदोलनकारियों के वंशज राज्य की कीमत समझ पाए। देहरादून में जमीन की कीमतें बढ़ती गई और पहाड़ के पहाड़ खाली होते चले गए, जो यहाँ रह गए उनमें से भी जिसे मौका मिले वही चला जाये।

इसी बीच पर्यटन पर खूब जोर दिया गया, और केवल पर्यटन ही उत्तराखंड की आर्थिकी का माध्यम है ऐसा प्रचारित किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि, पहाड़ी लोग जो बाहर जाना चाहते थे वे तो चले गए लेकिन अन्य कई लोग जिनको केवल अपना व्यापार नज़र आता था, न पहाड़ो से उनका कोई सरोकार था न प्यार, उनको ऐसी छोड़ी हुई जमीनें औने-पौने दामों पर मिल गई। पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर सरकारों ने भी खूब बाहरी उद्योगपतियों को बुलाकर जमीनें उपलब्ध करवाई और जहां-तंहा पहाड़ों का कटाव, वनो का कटाव शुरू हो गया। इसे रोकने के लिए न पहाड़ियों के पास कोई हथियर था न किसी ने उपलब्ध करवाया, राजनेता तो पहले ही देहरादून में बड़ी-बड़ी कोठियों में बैठ “पहाड़ के विकास की योजनाएं” बना ही रहे थे। तो, जमीनें बिकती चली गयी या कहीं-कहीं हथिया ली गयी और अंधाधुंध रिसोर्ट के रिसोर्ट खुलने लगे, किसका पर्यावरण और किसका पहाड़।

अब एक बार फिर सोए पहाड़ी जागे हैं, सबने देखा है 20 सालो में पहाड़ के नाम पर पहाड़ियों के साथ कैसा छल हुआ है। पहाड़ी राज्यों में उत्तराखंड ही एक ऐसा राज्य है जो सबसे नया है और जहाँ भूमि एवं उसके मूल निवासियों के स्वामित्व को लेकर कोई कानून ही नहीं है। सोचने का विषय है की जिन मांगों और सपनों को संजोकर उत्तर प्रदेश से अलग राज्य बनाया गया, वे प्रदेश बन जाने के 20 साल बाद भी यथावत हैं। दूर-दराज के गाँव में आज भी कोई बुजुर्ग या गर्भवती महिला जब बीमार हो जाते हैं तो उनको अस्पताल तक पहुंचने के लिए कोई सुविधा नहीं है, एक-एक अस्पताल मीलों दूर है। एक भी अध्यापक इन इलाकों में बने विद्यालयों में नहीं रहना चाहता न ही चिकित्सक रहना चाहता है। 20 वर्षों में प्रदेश सरकारों ने जनता को जो भी दिया है वो है “जीरो” एक बड़ा “जीरो” हमने “जीरो” सरकारें चुनी हैं और हमें बदले में “जीरो” से अधिक कुछ मिल भी नहीं सकता था। “भू-कानून” इन सब वजहों को ध्यान में रखते हुए एक बड़ा परिवर्तन ला सकता है, जमीन पर केवल मूल निवासी का अधिकार ही सुनिश्चित करेगा की प्रदेश सरकारें पर्यटन के अलावा अन्य दिशाओं में भी सोचें। जब जमीन बाहरी व्यापारियों और उद्योगपतियों को बेचने पर रोक लगेगी तब सरकार को उत्तराखण्ड के लिए विशेष योजनाएं लानी ही पड़ेंगी। अब बात पर्यावरण और उसके संरक्षण की, ज्यादातर लोगों के लिए ये विषय मात्र बातचीत में तड़का लगाने से ज्यदा कुछ भी नहीं है। वर्षों से इन पहाड़ों को आबाद रखे हुए लोगों को दिल्ली या किसी भी अन्य स्थान विशेष में बैठे हुए चंद तथाकथित “पर्यावरण विशेषज्ञ” ये सिखाने में लगे हैं कि जंगलों को कैसे बचाया जाय? क्या ये हास्यास्पद नहीं है। जिसने कभी जंगल नहीं देखा ऐसे लोग जंगल कैसे बचाये जाएं जैसे विषयों पर लिखने, बोलने और सिखाने लगते हैं। पहाड़ के जंगलों को पहाड़ियों से बेहतर कौन समझ पायेगा, पहाड़ियों को इन जंगलों की उपयोगिता और महत्व पता है, उनकी जिंदगी इन जंगलों, पहाड़ों और नदियों से जुड़ी है, वे किसी से भी अधिक प्राकृतिक रूप से प्रशिक्षित है इन स्थितियों में रहने के लिए और जानते हैं कि कैसी व्यवस्था में वे इन प्राकृतिक संसाधनों के साथ-साथ खुद को बनाये रख सकते है। अगर “भू-कानून” बनता है तो प्रदेश सरकार को ऐसी व्यवस्थाएं करनी ही होंगी कि पहड़ियों को घर छोड़कर दूर न जाना पड़े “रोजगार के लिए” और ऐसी स्थिति में जो व्यक्ति इस प्रकृति की ज्यादा बेहतर समझ रखता है उसे हम उसके प्राकृतिक आवास के पास रखने में सफल होंगे, तो, विकास भी दिखेगा और पर्यावरण भी, रोजगार भी दिखेगा और उज्ज्वल, धवल पहाड़ भी।
कौन बनेगा उत्तराखंड का “वाई एस परमार”।
डॉ पवन सिंह राणा की कलम से।

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